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लौंडा नाच" है जो आम आदमी के मनोरंजन का जबरदस्त साधन रहा है

नचनिया_एक_तमाशा
समूचे भोजपुरिया क्षेत्र का एक परंपरागत विधा और स्थानीय नाच "लौंडा नाच" है जो आम आदमी के मनोरंजन का जबरदस्त साधन रहा है 

तथा सामाजिक अभियांत्रिकी और समरसता को मजबूती प्रदान करने का एक साधन रहा।जिन्हें न देवताओं जैसे अप्सरा, अमीर कुलीनों जैसे बाईजी और तवायफों का मनोरंजन नसीब था वे विवाह, चैता और अन्य उपयुक्त अवसरों पर लौंडा नाच से मनोरंजन हांसिल करते थे।प्राचीन गायकी और नर्तक प्रणाली जैसे कजरी,ठुमरी,पंवरिया, झिझिया, गोडऊ आदि विधाओं से मिलकर भिखारी ठाकुर के नेतृत्व में लौंडा नाच का आविर्भाव हुआ।आम आदमी समाज में मनोरंजन के लिए और खुशी की अभिव्यक्ति के लिए महिलाओं का प्रवेश वर्जित था और इस शून्य को पुरुषों द्वारा महिला भेष में नाचकर तृप्त करना ही लौंडा नाच है।भोजपुरी के शेक्सपीयर श्री भिखारी ठाकुर के नेतृत्व में विदेशिया नाटक का मंचन उन दिनों कमाने गए पुरुषों की पत्नियों की वेदना है जो घर गृहस्थी चलाने के लिए गांव में रहती थी।"भिखरिया","महेंदरा",चाईओझा","बिहरिया","गिरिया" आदि नाच के मशहूर गिरोह रहे हैं।
आरा और बक्सर में भी काफी गिरोह रहा है। भोजपुरांचल में पहले बारात आती थी तो यह चर्चा का विषय होता था कि "नाच बा की ना"। और आलम यह था कि लगभग सभी बारातियों में लौंडा नाच रहता ही था।बारात दरवाजे लगने के बाद बच्चे धीरे धीरे बाराती "टीकनेवाले" जगह पर जमा होने लगते थे।छव सात को चौकी लगाकर "बावन चोप" के शामियाने में स्टेज बनता था जिसपर फाटल फुटल दरी या बंगाल वाला नया दरी बिछाकर नाच की तैयारी होती थी।स्टेज के पीछे नाच कंपनी का पर्दा और उसके पीछे मेकप का "राउटी" होता था।पर्दा से सटे सारे साजिंदे बैठते थे जो हारमोनियम, ढोलक,तबला, झाल,नगाडा और सारंगी बजाते थे।
राउटी में जब पुरुष महिला भेष धारण कर रहे होते थे तो नचदेखवा बच्चे राउटी के तिरपाल के "फांफड" भाग से झांककर जंग जीतने सा अनुभव करते थे।टिकुली, बाल,लिपिस्टिक, साडी ब्लाउज पहनकर जब सभी नर्तक तैयार हो जाते थे तो नाच शुरु होने का एनाउंसमेंट होता था।माइक रहा तो ठीक न तो श्री भिखारी के समय बिन माइके के तगडा एनाउंसमेंट होता था।दुल्हा और सब बराती एक साथ "ऊजर" "जाजिम" पर बैठकर आराम फरमाते थे तथा नाच शुरू होने का बेसब्री से इंतजार करते थे। "सराती" लगभग बीच का फांक बनाए स्टेज के समीप या शामियाना के परिधि पर बैठते थे।स्टेज का पूजा अगरबत्ती जलाकर होता था जो बाद में हारमोनियम के "भांति" में खोंस दिया जाता था।सारे लौंडे एक साथ बारी बारी से स्टेज को प्रणाम करके पुनः सभी साज को प्रणाम करते थे।शायद यह उन्हें रोजीरोटी देनेवाले विधा के प्रति समर्पण को दिखलाता था। कार्यक्रम की शुरुआत सरस्वती वंदना या गणेश वंदना से होती थी जिसे बाद में फिल्मी गाने "जशोमति मैया से बोले......."," ऊं जय जगदीश हरे.....","जय जय संतोषी माता....." आदि गीतों ने विस्थापित कर दिया।

और बाद में यह फिल्म पारसमणि के गीत "हंसता हुआ नूरानी चेहरा" से विस्थापित हो गया।उसके बाद भोजपुरी लोकगीत, पूर्वी, ठुमरी,कजरी आदि का प्रोग्राम होता था जिसमें लौंडे गाते भी थे और नाचते भी थे।रात चढते भोजपुरिया रस और भंगिमा और रसिक होता जाता था जबकि ब्रह्म मुहूर्त चढते "निर्गुण" गाया जाने लगता था।नगाडा के धुन को संतुलित बनाए रखने के लिए एक आदमी लगातार उसे शामियाना के बाहर आग पर सेंकते रहता था। बाराती, सराती मिलकर आनंद लेते थे और बढियां गाना या नाच पर पैसा दिया जाता था जिसके लिए नाच कंपनी का मालिक धन्यवाद के लिए नर्तकों से खास अंदाज में "शुक्रिया अदा" करवाता था।बारात "मरजाद"रहने पर दुल्हे के लिए "सेहरा" गाया जाता था जिसके लिए दुल्हे के पिताजी, मौसा जी,फुफा जी और बहनोई नर्तकों को अच्छा खासा पैसा देते थे और उन पैसों में आधा "नाच के सट्टा" में कटा जाता था। कार्यक्रम के बीच बीच में शून्य को भरने के लिए "जोकर" या "लबार" होता था जो बिन हंसाए नहीं मानता था। कभी कभी अश्लीलता भी सामने आती थी किंतु पुरुष समाज में ग्राह्य थी फिरभी भोंडापन नहीं था।स्टेज के नजदीक बैठकर नाच देख रहे बच्चों और किशोरों के लिए विशेष कौतूहल था।मसलन "ए तनी बुनियां झाड द....."," हमरा ओर देख के ना नचबू...." या फिर छोटे कंकड से नर्तकों को मारना आदि होता था जिसे नर्तक भी बुरा नहीं मानते थे बल्कि आधुनिक शब्दों में "इंज्वाय" करते थे।
               नाच देखने की परंपरा भी अजीब थी।बुजुर्ग, बच्चे, नवजवान सभी नाच देखने जाते थे।कुछ बुजुर्ग न जाते थे और न ही जाने देते थे।फिरभी बाहर सोने का बहाना करके और खटिया पर आदमी के आकृति में बिछौना लपेटकर, चद्दर ओढाकर "नचदेखवा" लोग चला ही जाता था।लाठी,टार्च, गमछी आ कुछ पैसा नाच देखने का हथियार होता था।कुछ बुढऊ लोग तो "चोपे" के पास बैठते थे तथा लौंडा को पैसा देने के लिए "पाल टांगकर" अर्थात माथा पर घूंघट डाले और दोनों हाथों से छितराए आने के लिए बोलते थे।मनोरंजन का रंग ऐसा होता था कि प्रतिस्पर्धा में कभी कभी "मार" हो जाता था जो सहज ही शांत भी हो जाता था। बूढे लोगों का मनोरंजन यही था क्योंकि खेत खलिहान में काम से थके मांदे होते थे और शहर से उनका कोई संबंध नहीं था। एक कारण यह भी था कि प्रायः अधेड या बूढे लोग लय सुर के जानकर थे और कोई न कोई साज बजाते थे। जब बाराती खाना खाने जाता था तबतक सरातियों के फरमाइश पर कार्यक्रम होता था। ऐसा था लौंडा नाच जो समाज के निचले पायदान से ऊपरी पायदान को जोडता था।बडे बडे नाच कंपनी वाले समाजिक कार्यों में योगदान भी देते थे।आरकेस्ट्रा, डीजे,बार डांस और शराब के चलन के साथ "शामियाना छेदाई" ने इस विधा को विलुप्ति के कगार पर ला दिया।  बिहार, यूपी और अन्य राज्यों के भोजपुरी समाज, मारिशस, फिलिपींस, जमैका,त्रिनिदाद टोबैगो आदि देशों के भोजपुरी समाज में अभी भी लौंडा नाच के प्रति लगाव है और रिसर्च होता है फिरभी इसका संरक्षण अब होना मुश्किल है। भिखारी ठाकुर के सहयोगी रहे स्व रामचंद्र मांझी को पद्म पुरस्कार मिलना गर्व की बात है।


(लेखक अनूप नारायण सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं तथा फिल्म सेंसर बोर्ड कोलकाता के सदस्य है)


सहरसा से बलराम कुमार

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